हिमाचल और अवसाद
जनप्रतिनिधि बांट रहे,
हिमाचल को प्रसाद।
फँसा कर्ज के दलदल में,
हुआ उसको अवसाद।
मुफ्त की योजनाओं से,
हुआ उसका बुरा हाल।
दो माह की तनख्वाह देकर,
नेताजी जता रहे एहसान!
इनकी वजह से राज्य का,
खजाना हो गया हैं वीरान।
ऊंट के मुंह में जिरा देकर,
खूब लूट रहें वाह-वाही।
सुना है तनख्वाह रखी है होल्ड,
कहीं रखा हो जैसे कोई गोल्ड।
समझ नहीं आता इन लोगों का,
न जाने आगे क्या है प्लान?
जनता तो हो गई रघुबीरा,
वह तो ख़ाए ककड़ी और खीरा।
नजर आ रहा इनको सेब,
भरनी है अब तो इनको जेब।
ढूंढ रहा है माँ का आंचल,
हमारा प्यारा वो हिमाचल।
संजय एम. तराणेकर
(कवि, लेखक व समीक्षक)
इंदौर (मध्यप्रदेश)